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क्या जरूरी है -
कि रेगिस्तान ही हो
सूर्य का रथ देखने के लिए ?
क्या यही है शाप, -
रथ के बद्ध और अदृश्य-
घोड़े ही सदा दीखें...?
क्या शिकायत है किरण से सिर्फ इतनी, -
- क्यों न ठंडे लौह-युग में
दाह भरती है...?
क्या विनय है देवता से बस, यही -
'आओ, गुनाहों की जमीं बे-मौत मरती है ?'
क्यों विवशता है -
कि अंधे काल की ही
ग्रंथियाँ खोलूँ,
या नदी की प्यास सीखूँ, टूटती परछाइयों से चाँद को तोलूँ ?
क्या मिलेगा -
यदि हिमालय मान लूँ
इस बर्फ-कुल्फी को ?
युधिष्ठिर से तेनजिङ् तक की विराट परंपरा को
चूसकर बोलूँ ?
अरे गुरु ! तुम रहे गुड़ ही,
कहीं गोबर न बनना भुरभुरी,
चीनी हुए चेले, कसौटी पर कसौटी है खड़ी !
उभरती पीढ़ियाँ ये -
भूमि के वश में करेंगी
सूर्य-रथ की धुरी !
सम क्या ? विषम क्या ?
हर ओर बजती ही रहेगी
सरचढ़ी, जादू-भरी
यह अभ्युदय की तुरी...!
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